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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की अनुष्ठान एवं पुरश्चरण साधनाएँ

गायत्री की अनुष्ठान एवं पुरश्चरण साधनाएँ

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4183
आईएसबीएन :00000

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गायत्री की अनुष्ठान एवं साधनाएं

Gayatri Ki Anushthan Evam Punashcharan Sadhnayein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अनुष्ठान-गायत्री उपासना के उच्च सोपान

एक नागरिक प्रश्न करता है आर्य ! वह कौनसी उपासना है, जिससे जातीय जीवन गौरवान्वित होता है ? इस पर गोपथ ब्राह्मण के रचयिता ने उत्तर दिया-


तेजो वै गायत्री छन्दसां तेजो रथन्तरम् साम्नाम् तेजश्चतुविंशस्तो माना तेज एवं तत्सम्यक् दधाति पुत्रस्य पुत्रस्तेजस्वी भवति’’

 

गोपथ ब्राह्मण


हे तात् ! समस्त वेदों का तेज गायत्री है सामवेद का यह छन्द ही 24 स्तम्भों का वह दिव्य तेज है जिसे धारण करने वालों की वंश परम्परा तेजस्वी होती है।
 
हिन्दुओं के लिये अनिवार्य सन्ध्यावंदन की प्रक्रिया यहीं से प्रारम्भ होती है। इस ब्रह्म तेज को धारण करने वाली हिन्दू जाति को शौर्य साहस और स्वाभिमान की दष्टि से कोई परास्त नहीं कर सका। यहाँ का कर्मयोग विख्यात है। यहां के पारिवारिक जीवन का शील और सदाचार, यहाँ के वैयक्तिक जीवन की निष्ठायें जब तक मानव वंश है अजर अमर बनी रहेंगी। यह गायत्री उपासना के ही बल पर था।
 
यह दुर्भाग्य ही है कि कालान्तर में इस पुण्य परम्परा के विश्रंखलित हो जाने के कारण जातीय जीवन निस्तेज और निष्प्राण होता गया किन्तु युग निर्माण योजना ने अब उस अन्धकार को दूर कर दिया है। लम्बे समय तक उसे अपनी आजीविका का साधन, बनाकर, बन्दीगृह में मिथ्या, भ्रान्तियों में डाले रखकर उस महान विज्ञान से वंचित रखा गया। अब वैसा नहीं रहा। गायत्री उपासना का पुण्य लाभ हर कोई प्राप्त कर सकता है। प्रायः मध्यान्ह और संध्या साधना के विधान निश्चित हैं। अपनी सुविधा अनुसार कम या अधिक मात्रा में गायत्री उपासना का मुक्त लाभ हर कोई भी ले सकता है।
उससे उच्च स्तर का ब्रह्म तेज, सिद्धि और प्राण की प्रचुर मात्रा अर्जित करनी हो, किसी सांसारिक कठिनाई को पार करना हो अथवा कोई सकाम प्रयोजन हो, उसके लिये गायत्री की विशेष साधनायें सम्पन्न की जाती है। इस क्रिया को अनुष्ठान के नाम से पुकारते हैं। जब कहीं परदेश के लिये यात्रा की जाती है तो रास्ते के लिये कुछ भोजन सामग्री तथा खर्च को रुपये साथ रख लेना आवश्यक होता है। यदि वह मार्ग व्यय साथ न हो तो यात्रा कष्ट साध्य हो जाती है। अनुष्ठान एक प्रकार का मार्ग व्यय है। इस साधना को करने से पूँजी जमा हो जाती है उसे साथ लेकर किसी भी भौतिक या आध्यात्मिक कार्य में जुटा जाय तो यात्रा बड़ी सरल हो जाती है।

बच्चा दिन भर माँ-माँ पुकारता रहता है, माता दिन भर बेटा, लल्ला कह कर उसको उत्तर देती रहती है, यह लाड़ दुलार यों ही दिन भर चलता रहता है, पर जब कोई विशेष आवश्यकता पड़ती है, कष्ट होता है, कठिनाई आती है, आशंका होती है, या सहायता की जरूरत पड़ती है, तो बालक विशेष बल पूर्वक विशेष स्तर से माता को पुकारता है। इस विशेष पुकार को सुनकर माता अपने अन्य कामों को पीछे छोड़कर बालक के पास दौड़ आती है और उसकी सहायता करती है। अनुष्ठान साधक को ऐसी ही पुकार है। जिसमें विशेष आकर्षण होता है, उस आकर्षण से गायत्री शक्ति विशेष रूप से साधक के समीप एकत्रित हो जाती है।

सांसारिक कठिनाइयों, में, मानसिक उलझनों, आन्तरिक उद्वेगों में गायत्री अनुष्ठान से असाधारण सहायता मिलती है। उसके प्रभाव से मनोभूमि में भौतिक परिवर्तन होते हैं, जिनके कारण कठिनाई का उचित हल निकल आता है। उपासक में ऐसी बुद्धि प्रतिभा सूझ-बूझ और दूरदर्शिता पैदा हो जाती है, जिसके कारण वह ऐसा रास्ता प्राप्त कर लेता है जो कठिनाई के निवारण में रामबाण की तरह फलप्रद सिद्ध होता है। भ्रात कठिनाई के निवारण में रामबाण की तरह फलप्रद सिद्ध होता है। भ्रांत मस्तिष्क में कुछ असंगत, असंभव और अनावश्यक विचारधारायें, कामनायें, मान्यतायें घुस पड़ी है, जिनके कारण वह व्यक्ति अकारण दुःखी बना रहता है। गायत्री साधना से मस्तिष्क का ऐसा परिमार्जन हो जाता है, जिसमें कुछ समय पहले जो बातें अत्यंत आवश्यक और महत्त्वपूर्ण लगतीं थीं, वे ही पीछे अनावश्यक और अनुपयुक्त लगने लगती है। वह उधर से मुँह मोड़ लेता है। इस प्रकार यह मानसिक परिवर्तन इतना आनन्दमय सिद्ध होता है। जितना कि पूर्व कल्पित भ्रांत कामनाओं के पूर्ण होने पर भी सुख न मिलता। अनुष्ठान द्वारा ऐसे ही ज्ञात और अज्ञात परिवर्तन होते हैं। जिनके कारण दुःखी और चिन्ताओं से ग्रस्त मनुष्य थोड़े में सुख-शान्ति का स्वर्गीय जीवन बिताने की स्थिति में पहुँच जाता है। गायत्री संहिता में कहा गया है-


 दैन्यरुक् शोक चिंतानां विरोधाक्रमणापदाम्।
कार्य गायत्र्यनुष्ठानं भायानां वारणाय च।।41।।


दीनता, रोग, शोक, विरोध, आक्रमण, आपत्तियाँ और भय इनके निवारण के लिये गायत्री का अनुष्ठान करना चाहिए।


जायते स स्थितिरस्मान्मनोऽभिलाषयान्विताः।
यतः सर्वऽभिजायन्ते यथा काल हि पूर्णताम्।।42।।


अनुष्ठान से वह स्थिति पैदा होती है। जिससे समस्त मनोवांछित अभिलाषायें यथा समय पूर्णता को प्राप्त होती है।


अनुष्ठानात्तु वै तस्मात् गुप्ताध्यात्मिक शक्तयः।
चमत्कारमयां लोके प्राप्यन्ते़ऽनेकधा बुधः।।43।।


अनुष्ठान से साधकों को संसार में चमत्कार से पूर्ण अनेक प्रकार की गुप्त आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।
अनुष्ठानों की तीन श्रेणियाँ है (1) लघु (2) मध्यम और (3) पूर्ण। लघु अनुष्ठान में 24 हजार जप 9 दिन में पूरा करना पड़ता है। मध्यम सवा लाख का होता है। उसके लिये 40 दिन की अवधि नियत है। पूर्ण अनुष्ठान 24 लाख जप का होता है। उसमें एक वर्ष लगता है।
मंत्र जप की तरह मंत्र लेखन के भी अनुष्ठान किये जा सकते हैं। मंत्र लेखन साधना के सम्बन्ध में विशेष विवरण इसी पुस्तक के अगले अध्यायों में है।

मंत्र लेखन अनुष्ठान में सभी नियम जप अनुष्ठान की तरह ही होते हैं। केवल जप की जगह लेखन किया जाता है। एक मंत्र लेखन 10 मंत्रों के जप के बराबर माना जाता है। तदनुसार 24000 जप के स्थान पर 2400, 125000 के स्थान पर 12500 तथा 2400000 के स्थान पर 240000 मंत्र लेखन किया जाता है।
लघु अनुष्ठान 9 दिन में 27 माला प्रतिदिन के हिसाब से पूर्ण होता है। मध्यम अनुष्ठान सवा लक्ष जप का 40 दिन में 33 माला प्रति दिन के हिसाब से पूर्ण करना चाहिए। 24 लाख यदि एक वर्ष में करना हो तो 66 माला प्रतिदिन करनी पड़ती है। दूसरा तरीका यह है कि 24 लाख के सौ अनुष्ठानों में या सवा लक्ष के 20 अनुष्ठानों में विभक्त करके इसे पूरा किया जाय।
अनुष्ठान पूरा होने पर उसकी समाप्ति का गायत्री यज्ञ किया जाता है। सामान्य नियम यह है कि जप के सतांश भाग की आहुतियाँ हों। किन्तु यदि संकल्पित जप का दसवाँ भाग अतिरिक्त जप कर दिया जाय तो आहुतियों का प्रतिबन्ध नहीं रह जाता सुविधानुसार कितनी भी आहुतियाँ करके अनुष्ठान की पूर्णाहुति की जा सकती है। अनुष्ठान किसी शुभ दिन में आरम्भ करना चाहिए इसके लिए रविवार, गुरुवार एक प्रतिपदा, पंचमी, एकादशी, पूर्णिमा तिथियाँ उत्तम हैं। तिथि या वार कोई एक ही उत्तम हो तो करने के लिये पर्याप्त है। चैत्र और अश्विन की नवरात्रियाँ 24 हजार लघु अनुष्ठान के लिये अधिक उपयुक्त हैं। वैसे कभी भी सुविधानुसार किया जा सकता है।

अनुष्ठान आरम्भ करते हुए नित्य गायत्री का आवाहन और अन्त में विसर्जन करना चाहिए। इस प्रतिष्ठान में भावना और निवेदन प्रधान है। श्रद्धापूर्वक भगवती जगज्जननी, भक्त वत्सला गायत्री से यहाँ प्रतिष्ठित होने का अनुग्रह कीजिये। ऐसी प्रार्थना संस्कृत या मात्र भाषा में करनी चाहिए। विश्वास करना चाहिए कि प्रार्थना को स्वीकार करके वे कृपा पूर्वक पधार गई है। विसर्जन करते समय प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘‘आदि शक्ति, भव-भव हारिणी, शक्तिदायिनी, तरण तारिणी मातृके। अब विसर्जित हूजिये। इस भावना को संस्कृत या अपनी मात्र भाषा में कह सकते हैं, इस प्रार्थना के साथ-साथ यह विश्वास करना चाहिए कि प्रार्थना स्वीकार करके वे विसर्जित हो गई हैं।

किसी छोटी चौकी, चबूतरी या आसन पर फूलों का एक छोटा सुन्दर सा आसन बनाना चाहिए और उस पर गायत्री की प्रतिष्ठा होने की भावना करनी चाहिए। साकार उपासना के समर्थक भगवती का कोई सुन्दर सा चित्र अथवा प्रतिमा को उन फूलों पर स्थापित कर सकते हैं। निराकार के उपासक निराकार भगवती की शक्ति का एक स्फुलिंग वहाँ प्रतिष्ठित होने की भावना कर सकते हैं। कोई-कोई साधक धूपबती की, दीपक की अग्नि शिखा में भगवती की चैतन्य ज्वाला का दर्शन करते हैं और उसी दीपक या धूपबत्ती को फूलों पर प्रतिष्ठित करके अपनी आराध्य शक्ति की उपस्थिति अनुभव करते हैं। विसर्जन के समय प्रतिभा को हटा कर शयन करा देना चाहिए, पुष्पों को जलाशय या पवित्र स्थान पर विसर्जित कर देना चाहिए।

पूर्व वर्णित विधि से प्रातः काल पूर्वाभिमुख होकर शुद्ध भूमि पर शुद्ध होकर कुश के आसान पर बैठें। जल का पात्र समीप रख लें। धूप और दीपक जप के समय जलते रहना चाहिए। बुझ जाय तो उस बत्ती को हटा कर नई बत्ती डालकर पुनः जलाना चाहिए। दीपक या उसमें पड़े हुए घृत को हटाने की आवश्यकता नहीं है।
 
पुष्प आसन पर गायत्री की प्रतिष्ठा और पूजा अनुष्ठान काल में नित्य होती रहनी चाहिए जप के समय मन को श्रद्धान्वित रखना चाहिए, स्थिर बनाना चाहिए। मन चारों ओर न दौड़े इसलिये पूर्व वर्णित ध्यान भावना के अनुसार गायत्री का ध्यान करते हुए जप करना चाहिए। साधना के इस आवश्यक अंग में ध्यान लगा देने से वह एक कार्य में उलझा रहता है और जगह-जगह नहीं भागता। भागे तो उसे रोक-रोक कर बार-बार ध्यान भावना पर लगाना चाहिए। इस विधि से एकाग्रता की दिन-दिन वृद्धि होती चलती है।
 
एक समय अन्नाहार, एक समय फलाहार, दो समय दूध और फल, एक समय आहार, एक समय फल और दूध का आहार, केवल दूध का आहार इसमें से जो उपवास अपनी सामर्थ्यानुकूल हो उसी के अनुसार साधना आरम्भ कर देनी चाहिए। प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त में उठ कर शौच स्नान से निवृत्त होकर पूर्व वर्णित नियमों को ध्यान में रखते हुए बढ़ना चाहिए।


दो नवरात्रियाँ-गायत्री उपासना के दो अयाचित वरदान


गायत्री उपासना का सामान्य समय तो हर दिन, हर घड़ी है, उसे रात में भी जपा जा सकता है दिन में भी। दिन में उपांश अर्थात् उँगलियों में अथवा माला से गणना का क्रम चलाते हुए, मुँह से मद्धिम उच्चारण करते हुए जप करने का विधान है और रात में मानसिक जप। मंत्र लेखन भी एक प्रकार का मानसिक जप ही है, वह भी रात में हो सकता है। गायत्री की तंत्र साधनायें रात में सम्पन्न की जा सकती है। अस्वस्थ्य और आपत्ति कालीन स्थिति में राह चलते या विस्तर पर लेटे-लेटे भी मानसिक जप किया जा सकता है।   



प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. अनुष्ठान-गायत्री उपासना के उच्च सोपान
  2. दो नवरात्रि - गायत्री उपासना के दो अयाचित वरदान
  3. सामूहिक साधना का उपयुक्त अवसर - नवरात्रि पर्व
  4. गायत्री अभियान साधना
  5. गायत्री की उद्यापन साधना
  6. महिलाओं के लिये कुछ विशेष अनुष्ठान
  7. कुमारियों के लिये आशाप्रद भविष्य की साधना
  8. सधवाओं के लिये मंगलमय साधना
  9. सन्तान सुख देने वाली उपासना
  10. साधकों के लिये कुछ आवश्यक नियम
  11. चान्द्रायण तप की शास्त्रीय परम्परा
  12. परम पवित्रता दायक चान्द्रायण तप
  13. चान्द्रायण का सामान्य व्रत विधान
  14. पाप पर से पर्दा हटाया जाय
  15. चान्द्रायण में केश काटने का संस्कार
  16. चान्द्रायण वर्त और गौ सम्पर्क
  17. धर्म-प्रचार की पदयात्रा - तीर्थयात्रा

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